यूपी का वो चुनाव जिसने रखी पाकिस्तान की नींव | The UP elections that laid


 The UP elections that laid the foundation of India and Pakistan:

20वीं सदी की वो कौन सी घटना है जिसे आज भी हर हिंदुस्तानी याद रखना चाहता है तो आप कहेंगे 15 अगस्त 1947। अगर मैं आप से कहूँ कि वो कौन सी घटना है जिसे हर हिंदुस्तानी भूलना चाहता है या इतिहास के पन्नों से हटाना चाहता है तो आप कहेंगे पाकिस्तान का बनना। अगर मैं पूछूँ पाकिस्तान कैसे बना तो आप इसके बारे में 4 थ्योरीज की बात करेंगे।

The UP elections that laid the foundation of India and Pakistan

पहली थ्योरी - ये जिन्ना की महत्वाकांक्षा थी जिसने कुछ मुस्लिम जमींदारों और नबावों के साथ मिलकर अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की नींव रखी। कुछ लोग इसे अंग्रेजों की बांटो और राज करों की नीति का परिणाम मानेंगे, तो कुछ लोग कहेंगे कि ये भारत में बढ़ती बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का परिणाम था।

हो सकता है कुछ लोग ये भी मानें कि ये कांग्रेस की असफलता थी जिसने एकीकृत और धर्मनिरपेक्ष भारत की संकल्पना को सत्ता की लालच में आकर जिन्ना के सामने समर्पित कर दिया, लेकिन अगर मैं कहूँ पाकिस्तान का बनना यूपी के चुनाव से जुड़ा था तो आप चौंक जायेंगे। अगर आप भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार और राष्ट्रवादी नेता K.M मुन्शी की किताब "आजादी के तीर्थ" पढ़े तो वे इस चुनाव को संगठित भारत के अंत की शुरूआत मानते है। आप मुस्लिम लीग के यूनाइटेड प्रोविंस के सबसे बड़े नेता ख़लीक उज़्मा की किताब Pathway to Pakistan पढ़ेंगे तो कहेंगे कि यूपी के इस चुनाव ने कांग्रेस और मुस्लिमलीग के बीच में गृह युद्ध की शुरूआत की जिसका अंतिम परिणाम पाकिस्तान का बनना रहा। आप मौलाना आजाद की किताब India Wins Freedom पढ़ेंगे तो मौलाना आज़ाद कहते है कि ये चुनाव एक निर्णायक क्षण था जिससें कांग्रेस और मुस्लिमलीग की राहें जुदा हो गईं। एक राह भारत की ओर गयी तो दूसरी राह पाकिस्तान की ओर गयी।


साल था 1935 , ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम 1935 को मंजूरी दे दी थी इस अधिनियम में तय हुआ था की भारतीयों को देश के अलग-अलग प्रांतों में, सरकार बनाने और शासन चलाने का अधिकार दे दिया जाए

muslim jinna image credit aaj tak

ऐसे में जब देश में पहली बार साल 1937 में चुनाव होने की तैयारियां शुरू हुई, तो भारत की जायदातर पार्टिओ ने हिस्सा लिया यह वो मौका था जिस वक्त मौजूद रहे राष्ट्रीय क्षेत्र स्तर की पार्टिया किसी भी हल में गवाना नहीं चाहती थी क्योकि उस समय जो भी पार्टिया चुनाव जीत कर सामने आती थी उसका राजनीती वर्चस्व और ब्रिटिश राज्य के साथ सौदेबाजी की क्षमता बढ़ जाती लेकिन 1934 का चुनाव आज की तरह नहीं था ये चुनाव सांप्रदायिक चुनाव पर आधारित था और इस चुनाव के नियम थे की मुस्लिम मतदाता, मुस्लिम रिज़र्व सीटों पर केवल मुसलमानो को ही वोट देंगे और सामन्य मतदतावो को किसी को भी वोट देने की आज़ादी थी ऐसे में सांप्रदायिक निर्वाचन के आधार पर हुए 1937 के चुनाव को लेकर ब्रिटिश काफी निश्चिंत थे की मुस्लिम मतदाता मुस्लिम लीग को ही वोट करेंगे

तो आईये पहले CROMINOLOGY समझते है :

साल था 1934 CAMBRIDGE UNIVERSITY के एक छात्र रहमत अली ने एक लेख लिखा *और कहा की (अभी नहीं तो कभी नहीं) और उसने पहली बार एक मुस्लिम राष्ट्र की कल्पना की और नाम रखा पाकिस्तान और अभी हाल ही में लौटे मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान की संकल्पना वाला पत्र सौपा तो जिन्ना ने इसे reject कर दिया , जिन्ना न इसे बच्चो की नादानी के रूप ने कहा

यहाँ तक की रहमत अली से नाराज होकर जिन्ना पर व्यक्तिगत आरोप भी लगाए की जिन्ना कांग्रेस के हाथो बिक चुके है दरसल चौधरी रहमत अली ये बात इसलिए कह रहे थे की क्योकि 1937 के चुनाव में जिन्ना ने मुस्लिम लीग की घोषणा का प्रारूप ठीक वैसे ही बनाया था


अगर आप 1937के यूपी के चुनाव की संपन्न होने तक की घटनाओं को देखें तू जिन्ना की भाषणों में कहीं भी कांग्रेस की कोई आरोप नहीं लगाया लेकिन ऐसा क्या था कि जिन्ना ने 1937 के लखनऊ अधिवेशन में आते आते यह कहना शुरू कर दिया कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है

कैसे उन्होंने यह कह दिया कि कांग्रेस का जीतने का मतलब हिंदू वर्चस्व का स्थापना करना उन्होंने यह भी कहना शुरू किया कि अगर अब कांग्रेस जीत गई तो इस देश में अल्पसंख्यकों के लिए कोई स्थान नहीं हो जाएगा बचेगा मात्र कुछ महीनों की चुनाव में आखिर जिन्ना का यू रूपांतरण कैसे किया

क्यों जिन्ना 1937 लखनऊ के अधिवेशन में पहुंचे और इस तरह की बातें करने लगे और वहां यह देखने को मिला कि उनकी सिर्फ कपड़े ही नहीं जैसे कि कोट पेंट सेट को उतार कर उन्होंने एक मुस्लिम निवास को पहन रखा था वह जिंदा जिन्हें जिन्हें गोखले ने हिंदू मुस्लिम एकता का दूध कहा था वह जिन्ना जिन्हें संविधान वादी कहा जाता था अब वह सांप्रदायिक जिंदा बनेंगे और आप देखेंगे कि कैसे जिंदा ने रहमत अली के 1934 के प्रस्ताव को बच्चों की नादानी मांगा था वही जिंदा 1940 के लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कराएंंगे।
और जिन्ना का यह प्रस्ताव अब मुस्लिम लीग का वो पहला कदम होगा जो भविष्य के पाकिस्तान का निर्माण करें करेगी और इसका यूपी के 1937 के चुनाव से प्रत्यक्ष संबंध है।

आइए समझते हैं कि यह कहानी कैसे शुरू हुई और इसका यूपी के 1937 चुनाव से क्या लेना देना था ?

जब साल 1937 के चुनाव होने वाले थे तो उस समय अपनी-अपनी पार्टियों के अध्यक्ष और भारत व पाकिस्तान की भविष्य के राजप्रमुख नेहरु जी और जिन्ना अपनी-अपनी चुनाव के कमान को संभाले हुए थे। 1937 के चुनाव में इसी चुनाव में पहली बार कांग्रेस - मुस्लिम लीग के बीच थोड़ी-थोड़ी दीवार बननी शुरू हो गई थी, फिर चुनाव का प्रचार हो रहा था तो नेहरू ने बार-बार जिंन्ना को यह कर यह कह कर प्रयोग किया ड्राइंग रूम पॉलिटिक्स से बाहर निकले और आम मुसलमानों तक जाएं 1937 की इसी चुनाव के दौरान पंडित ज्वाला नेहरू हैं जवाहरलाल नेहरू ने बार-बार यह भी का कि भारत में कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी है। जबकि, मुस्लिम लीग मुसलमानों की ना होकर एक नवाबों की पार्टी है इसके अलावा 1936 के फैजपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने यह भी कहा कि पूरे भारत में सिर्फ दो ही ताकते हैं एक तो है ब्रिटिश राज और दूसरी है कांग्रेस। अगर आप कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप ब्रिटिश का समर्थन कर रहे हैं हालांकि इन सबके बावजूद भी जब तक 1937 के चुनाव के परिणाम नहीं आए थे तब तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच दूरियां ज्यादा नहीं बढ़ी थी। लेकिन जैसे ही 1937 चुनाव के रिजल्ट आए मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच की तल्ख़ियां एक स्थायी दिवार के रूप में बढ़ गई, इसमें भी असली मुद्दा तब आया जब मुस्लिम लीग को यह पता चला सामान्य सीटों पर कांग्रेस ने कुल 70% सीट पर विजय प्राप्त कर ली है। और मुस्लिम रिज़र्व की सीटें जहां के लिए नियम यह था कि इन सीटों पर सिर्फ मुसलमान ही चुनाव लड़ेंगे और मुसलमान ही होंगे वोटर होंगे , वहां पर भी मुस्लिम लीग के चुनाव का परिणाम बहुत ही खराब था। यहां तक कि पंजाब, सिंध और नॉर्थ फ्रंटियर जो कि अब पाकिस्तान का हिस्सा है उन जगहों पर 136 मुस्लिमों रिजर्व सीटों पर मुस्लिम लीग को सिर्फ 2 सीटों पर जीत को दर्ज कर सकें। साल 1937 के इसी चुनाव ने मुस्लिम लीग के उस दावे की पोल खोल दी कि वह पूरे भारत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है, और यहीं से माना जाता है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच की दूरियां बढ़ गई। दरसल इन घटनाओं ने जिन्ना के सामने और और मुस्लिम लीग के सामने एक प्रतिनिधित्व का प्रश्न खड़ा कर दिया था और यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि भले ही मुस्लिम निर्वाचन सीटों पर मुस्लिम लीग को जीत नहीं मिली थी पर सच्चाई यह भी थी कांग्रेसियों को भी इन सीटों पर जीत नहीं मिली थी। कुल 482 सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 26 सीटों पर ही जीत मिली थी, जबकि इन सभी मुस्लिम सीटों पर प्रांतीय पार्टियां जैसे मुस्लिम बहुल इलाके वाले बंगाल में प्रजा कृष्ण पार्टी और पंजाब में यूनीनिस्ट पार्टी ऐसे में 1937 के इसी चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमान मुसलमानों को ऑटो को जीतने के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग के चुनाव के बाद प्रतिस्पर्धा और भी बढ़ गयी। 1937 चुनाव का रिजल्ट आने के बाद जिन्ना की आखिरी उम्मीद यूनाइटेड प्रोविंस यानी कि (उत्तर प्रदेश) थी दरसल 1916 में हुए लखनऊ समझौता के जरिए कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की मांगों को स्वीकार किया था, और कहा थाकी हम मिलजुल कर सभी प्रांतों में सरकार चलायेंगे। और जिन्होंने इस समझौते के तहत संयुक्त प्रांत के साथ मिलकर एक सरकार बनाना चाहते थे लेकिन संयुक्त प्रांत में जिंदा जिन्ना को पहला झटका तब लगा जब मौलाना आजाद ने जमाती मुलिमा को कांग्रेस में शामिल कर लिया। इससे कांग्रेस का यह दावा मजबूत हुआ की वो एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी जिससे वह अब तक यह कहते आ रहे थे धर्मनिरपेक्ष पार्टी है मौलाना आजाद ने तक दिया ने तब दिया उन्होंने खली कुसमा की बातचीत के दौरान पर्दे के पीछे बातचीत शुरू कर दी और उनके सामने यह प्रस्ताव रखा की पूरी मुस्लिम लीग कांग्रेस में शामिल हो जाए तो यहां मुस्लिम लीग के उम्मीदवारों को मंत्रिपरिषद में शामिल कर लेंगे। साल 1937 के चुनाव मुस्लिम सीटों के कांग्रेसका ना जीतने पर पंडित नेहरू ने दावा किया मुस्लिम सीटों पर कांग्रेस इसलिए हारी क्योंकि कांग्रेस मुसलमानों के बीच नहीं पहुंच सकी, जिसके बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पूरे भारत में जनसंपर्क की घोषणा कर दी और इससे अल्लामा इकबाल ने एक चुनौती के रूप में लिया। इसके बाद यूनाइटेड प्रोविंस के नेता यानी कि उत्तर प्रदेश के नेता खली कुंजमा ने कांग्रेस के विलय प्रस्ताव को नकार दिया और जब साल 1937 में ही मुस्लिम लीग में लखनऊ अधिवेशन हुआ तो इसके बाद जिन्ना के सारे सुर बदल गए है। यहाँ पहली बार अल्लामा इकबाल की प्रेणना से ये नारा दिया की इस्लाम खतरे में है और 1940 के मुस्लिम लौहार अधिवेशन में पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया इस प्रकार वो जिन्ना जो 1934 तक कह रहे थे की पाकिस्तान की संकल्पना कुछ भ्रममति और युवाओ की संकल्पना है , उन्ही जिन्ना ने इसे अपने जीवन का आखिरी प्रश्न बना लिया। अब उन्होंने यह समझ लिया की अब कांग्रेस से बातचीत नहीं करनी है, क्युकी सत्ता की चाभी कांग्रेस के पास नहीं बल्कि ब्रिटिश राज के पास है और वे यानि की जिन्ना एक सच्चे वकील की तरह ब्रिटिश राज से मुक़दमा लड़ेंगे और पाकिस्तान की जनता (जिसकी कल्पना की थी ) को न्याय दिलाएंगे। और इसका परिणाम देखिये की जो 1937 के चुनाव में मुस्लिम निर्वाचित सीटों पर 25 प्रतिशत सीटें नहीं जीत पायी थी। उसने 1940 के चुनाव में 85 - 90 प्रतिशत सीटों पर विजय प्राप्त कर ली, और वो मुस्लिम लीग जो पंजाब , सिंध और ईस्ट फ्रंटियर में 2 सीटें भी नहीं जीत पायी थी .

उसने अब 156 सीटों में से 116 सीटें जीतकर पाकिस्तान और 2 nation थेओरी को आगे बढ़ा दी अगर 1937 के यूनाइटेड प्राविन्स के चुनाव में मुस्लिम लीग और कांग्रेस में समझौता हो गया होता , तो शायद मौलाना आजाद के शब्दों में लीग धीरे -धीरे स्वतः विलय हो जाता और इसके लिए अलग से कोशिस नहीं करनी पड़ती ।

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